खिलाने वाले ही खा गए सब हक़ के निवाले patriotic shayari,
खिलाने वाले ही खा गए सब हक़ के निवाले ,
फिर किस मुंसिफ ए दरबार में गुनहगारों की हाज़िर जवाबी हो ।
घुट के लबों में दब गयी एक शाम स्याह सी ,
रोशन ए महफ़िल में बुझे चेहरे खिल गए कैसे ।
मुफ्त की ख़ैरात से कभी बरक़त नहीं होती मुंसिफ ,
हक़ के निवाले से भूखे पेट भरते हैं ।
रात के सफ़ीने का मैं हमसफ़र तन्हा,
ग़म ए गर्दिश में डूब मरने की परवाह किसे है ।
हम भी तो देखे कोई खुशहाल सा हो ,
गोया इश्क़ के दर्द ए दिल में बेहाल न हो ।
कितना भी नाज़ कर लें अपनी मोहब्बत पर ,
गोया इश्क़ में हर एक शख्स रोता ज़रूर है ।
इश्क़ में पुराने तज़ुर्बे क्या कम थे ,
जो एक दोस्त को मेहबूब ए यार बना डाला ।
अश्क़ों के वज़ीफ़े पर दिन दूना मुआवज़ा ,
झूठी मूठी मोहब्बत का कोई इज़ाफ़ा ए तरदीद ही नहीं ।
हर बात में हामी भरता है ,
मेरा मुंसिफ कोई ख़ुदा लगता है ।
कितने किरदार बदलता है मौसम की तरह ,
मेरे मुंसिफ कभी मेरे भी किये कराये का फैसला कर दे ।
ग़रूर ए ख़ाक का मुस्तक़बिल मुंसिफ ,
दो हाँथ कफ़न के साथ गज भर की ज़मीन भी है ।
काली काली रातों में जो कहकशां सजाते हैं ,
कुछ परिंदे चैन ओ अमन के कुछ फरिश्ते भी फ़र्ज़ निभाते हैं ।
काली काली रातों पर ज़ुल्फ़ों का पहरा ,
जो बच जाए गुनाह ए पाक से करीना ए सेहर का दीदार करे ।
तुम तो दिन के उजालों में सो लेते हो मोहब्बत करके ,
हमको श्याम स्याह रातों के घुप अंधेरों में भी नींद क्यों नहीं आती।
क्यों लहू जिगर का उबालते हो प्याला प्याला ,
जब सियासियों का खून ए रंग हो गया है काला ।
किस से दास्तान कहें किसे फ़रियाद सुनाएँ ,
गोया जब मुंसिफ भी वही हो और मुफ़लिश भी वही हो ।
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