ग़ज़ब की चग्घड है सियासत के मामले में Alfaaz shayari,
ग़ज़ब की चग्घड है सियासत के मामले में ,
दिग्गजों को भी कभी – कभी मुंह की खिला देती है क़लम ।
समुन्दर की अथाह गहराइयों में डूब जाती है ,
फ़िर वही गूढ़ ज्ञान कागज़ में उरेख देती है क़लम ।
गीता का श्लोकों से क़ुरान की आयतें तक लिख डाली ,
बित्ते भर की क़लम ग़ज़ब के कारनामे कर डाली ।
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जो चाहो जीभी की नोक पर रख कर आज़माइश कर लो ,
क़लम की धार तलवार से भी तेज़ चलेगी ।
काले हर्फों की ताक़त कभी कमज़ोर नहीं,
ऊंचे ऊंचे तख्ते हिलाये बैठी है ।
प्रेयसी का प्रीतम को प्यार भरा ख़त भी लिखती है,
वक़्त पड़ने पर रणचण्डिका बन समर में उतरती है ।
ख़ुद बा ख़ुद कितने क़िरदार निकल आते हैं ,
जब क़लम बन सँवर के सादे कागज़ पर चलती है ।
क़तल गाहों में क़तल न हो किसी मज़लूम की आवाज़,
आह निकली है क़लम से तो दूर तलक जाएगी ।
दिल के रिश्तों में अक्सर होता है,
ज़ख्म जितना भी हो दर्द की टीस गहरी होती है ।
कहीं महफ़िल नहीं सजतीं कहीं सेहरा नहीं होता ,
वादी ए ग़ुल में आजकल हमारा दिल नहीं लगता ।
बग़ावत जो ज़हन में थी क़लम की स्याही में उतर आने दो ,
अभी आवाज़ उठी है धीमी सी , जनसैलाब की हुंकार में बदल जाने दो ।
ज़िन्दगी के पन्ने पलटते गए ,
किस्से कहानियाँ बनते गए ।
न सोएंगे न सोने देंगे हुकुमरानों को ,
इल्म के जलते सरारों से ज़हालत का हर पर्दा उठाएंगे ।
सोये पड़े हैं वो सुनहरी फर्श के दरीचे में ,
इस बात का है इल्म ऊपर आसमान खुला है ।
मIनI की सियासत में मदमस्त हैं हुकुमरान ,
जब तक की रियाया ने खींचे नहीं थे कान ।
वादी ए गुल खिज़ा के मौसम में ,
शर्द झोकों से गुंचा ए मस्कान सारे छोड़ चले ।
सीखते सीखते आ जाती है ये आतिश ए ग़ज़ल ,
या हुश्न पिघल जाता है या इश्क़ हो जाता है क़तल ।
चिर निंद्राओं के साथ क़लम को अब विराम देते हैं ,
सुबह फ़िर नवचेतना का सतत जीवन में हुंकार भरना है ।
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