घर के गलियारे में दौड़ता बचपन romantic shayari,
घर के गलियारे में दौड़ता बचपन ,
जाने कब वक़्त के थपेड़ों से पथरीले रास्तों पर उतर गया ।
वक़्त कितनी ज़ल्दी से निकल गया रफ़्तार के साथ,
हम आज भी उलझे खड़े हैं बचपन की सौग़ात के साथ ।
हिमालय भी पिघलता है जब हवाएं गर्म होती हैं ,
सियासत की नदियों में बस इतनी जटिलता तल्लीन होनी चाहिए ।
इंसान एक जैसे थे ज़मीनो में फ़र्क़ इतना था,
दिलों में बाड़ बनकर कटीले तार बिछे थे ।
किसी शायर का दिल न बहेक जाये चांदनी से चाँद की ,
गोया बादलों में छुपा लेता है आस्मां रौशनी शबाब की ।
एक जंग थी ज़हन में ताउम्र रहेगी ,
ये दुश्मनी अंधेरो की सुर्ख सफक उजालों से टलेगी ।
इश्क़ की तबाही ही अगर फितरत है ,
मैं हर रात मय में चांदनी मिला के पीता हूँ ।
रौशनी के नुमाइंदों की बस इतनी सी ख्वाहिश है,
एक रात गर ईद हो एक रात दिवाली की फरमाइश है ।
शहर भर के चरागों को असमंजस है,
जश्न की रात है फिर ईद है या दिवाली है ।
तालीम ओ तरबियत भी उतनी ही मुक़र्रर की हुकुमरानों ने ,
गोया फासले भी बने रहे और सरकार भी चलती रहे ।
फ़लक़ पर उठे थे सोचा देर तलक़ चमकोगे,
बस एक सरारे में सवेरा साफ़ कर दिया ।
रौशनी क़म न हो चैन ओ अमन की मीनारों वाली ,
तिजोरियां हो जाएं लाख ख़ाली दीनारों वाली ।
शहर भर के अंधेरों को मिटाने की ज़द्दोज़हद,
मोम तो थी नहीं ख़ाली ईमान चरागों में बचा रखा है ।
चंद साँसे ही बची थी ग़ालिब ,
गोया इश्क़ इ अदायगी तमाम उम्रें ज़ाया करते ।
असरार तो वैसे भी तेरे अच्छे थे,
उस पर इश्क़ की मेहरबानी और लज़्ज़त निखर गयी ।
जब तक पड़ा था इश्क़ जबीन ए ख़ाकसार था ,
ग़ालिब की नज़र से रूह ए बागबान हुआ ।
यतीमों का भी क्या बचपन होता होगा ,
गालियों को लोरियां समझ फुटपाथ पर सोता होगा ।
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सीसी में शीसे का तेरा अक़्स नज़र आता है ,
पैमाना भर भर के तेरा नक़्श तोड़ आता हूँ ।
pix taken by google ,