चुनावी सरगर्मियाँ हैं बच बचा के चलना हबीब funny political shayari,
चुनावी सरगर्मियाँ हैं बच बचा के चलना हबीब ,
दंगा फ़सादियों का कोई मज़हब नहीं होता ।
जब ख़िदमतगार को ही हुकूमत का चस्का लग जाए ,
समझो रियासत ए अवाम को अब ख़तरा है ।
बुझा बुझा के चुभाता है खुद मेरे दिल में ,
डुबो डुबो के ज़हर मेरे लहू का मुझमे ।
क़तरा क़तरा टपक रहा है जिगर का लहू बनके ,
रगों में बहने लगा ज़हर जब ख़ूबरू होके I
आदम ही गर आदमख़ोर हो जाये ,
क्या इब्न ए इंसान दरख्तों में बच्चे महफूज़ रखेगा ।
शहरी रियासतों पर सबकी ज़ात पर बन आई है ,
चुनावी सरगर्मियों ने ले ली फिर अँगड़ाई है ।
जान पर न बन जाए मोहब्बत तेरी ,
सरहदों पर दौड़ लगाऊं क्या मोहब्बत मेरी ।
शहरी रुआब है या तिलिस्मी नक़ाब है ,
हर शक़्स है प्यासा यहाँ खाना ख़राब है ।
इश्क़ की फितरत ही नहीं क़ायदे में रहना ,
हदों के पार ही मोहब्बतों की रात होती है ।
दाग़ दामन के धो लिए मैंने ,
फिर क्यों लहू को लहू से इन्साफ की दरकार आज भी है ।
बेज़बानी में झलक जाते हैं वो दाग ,
दस्तूर ए वक़्त ने जो ज़ख्म दिल पे दिए होते हैं ।
ज़ख्म दिखता नहीं दाग़ फिर भी हैं ,
बेज़बान मुर्दों में नासूर बनके कसकता क्या है ।
बेज़बान परिंदों से ख़ौफ़ कैसा ,
डर लगता है कहीं फ़ितरत ए आदम देख कर वो उड़ न जाएँ ।
दरख़्त छोड़कर जाने लगे परिन्दे भी अपनी सरहद के ,
उस पार भी आदम ए बस्ती है फिर घर कहाँ बनायेगे ।
हम भी तो देखें दिलों में कितनी चाहत है ,
क्या दाग़ ए मोहब्बत की ख़ातिर हम ही बेचैन हैं तन्हा ।
जिन्हें डर हो कहीं और घर बसा लें ,
आशिक़ को मेहबूब के दिलों में महफूज़ रहने दो ।
बातों से पता नहीं चलता आदम ए सूरत तो एक जैसी लगती हैं ,
सुना है सरहदों पार भी एक से एक खूँख़ार रहते हैं ।
गोया रात की तहरीर पर इश्क़ ओ जूनून की बात चलती होगी ,
बेज़बान लब पर मेरा नाम आता होगा बेलगाम धड़कने ना सम्हलती होंगी ।
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