तक़ाज़ा ए उम्र ये कहता है mohabbat shayari ,
तक़ाज़ा ए उम्र ये कहता है ,
सेहर होने तक ये रात ये तिश्नगी ये उम्मीद ए चराग कभी बुझते नहीं ।
बड़ी बेहयाई से उठती लहरों का जूनून देखो ,
दिल में कितनी उम्मीदें जगा कर साहिल से मिलती हैं ।
वक़्त की फ़ितरत बदल गयी साहेब ,
इश्क़ के बाद इबादत ए ख़ुदा हम नहीं करते ।
उनके लफ़्ज़ों से ख़ुदा की नमाज़ें अदा होती हैं .
जो हर्फ़ दर हर्फ़ मोहब्बतों की मोतियाँ पिरोते हैं ।
भूरी चमकती आँखों में तज़ुर्बा है ,
ये एक उम्र का तक़ाज़ा है ।
बूढ़े दरख़्त की लुग्दी से अब अख़बार बनता है ,
जिसकी छाँव तले बुज़ुर्गियत की चौपाल सजती थी ।
रूख़्सती का वक़्त है प्यारे ,
यही इल्तेज़ा है गुंचा ए गुल की उछलो कूदो आबाद रहो ।
क़हक़शाँ गूँजते थे जिन दरीचों में ,
फ़लक़ पर कारवाँ लेकर सुनहरी शाम बैठी है ।
इत्मीनान से सोया पड़ा है सन्नाटा फ्लाईओवर ब्रिज के नीचे,
कभी ये चौराहा शहर भर के बुज़ुर्गों की शान होता था ।
ख़्याल आया तो एक बुज़ुर्ग की नसीहत याद आई ,
सहेज लो दुआएं नसीब वालों को बुज़ुर्गों का लाड़ मिलता है ।
मैं इश्क़ करता हूँ ,
हर्फ़ दर हर्फ़ कागज़ ए बयानी क़लम सयानी करती है ।
मुट्ठी से फिसली रेत् सा दरिया में बहता जाता हूँ ,
मैं बिसरे वक़्त की तहरीर सा गुमनाम हुआ जाता हूँ ।
अब एक ही काम बचा है शहर के बेरोज़गारों में ,
ख़त मेहबूब के छुपा के अख़बारों में सुबह से शाम पढ़ते रहना ।
दो वक़्त की रोटी पाँच वक़्त की नमाज़ ,
क्या इतना कम है या मौला ।
चश्म ए चरागों में हो गर उम्मीद की लौ ,
जलते अंगारों में भी फूल खिला करते हैं ।
तुझ पर शबाब आया आकर चला भी गया ,
यहां खिज़ा के मौसम में बाग़ ए बहार की उम्मीद अभी बाकी है ।
सेहराओं से गुज़रते बादलों का कुछ तो फ़लसफ़ा होगा ,
यूँ ही बेमतलब शबनमी बूँदें जलती ज़मीन पर टपकती नहीं ।
उम्मीद रखें किससे, किससे गिला सिकवा करें ,
जब वक़्त ही खराब हो अपना ज़माने को कौन तोहमतें अदा करे ।
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