तक़ाज़ा ए उम्र ये कहता है mohabbat shayari ,

0
1932
तक़ाज़ा ए उम्र ये कहता है mohabbat shayari ,
तक़ाज़ा ए उम्र ये कहता है mohabbat shayari ,

तक़ाज़ा ए उम्र ये कहता है mohabbat shayari ,

तक़ाज़ा ए उम्र ये कहता है ,

सेहर होने तक ये रात ये तिश्नगी ये उम्मीद ए चराग कभी बुझते नहीं ।

 

बड़ी बेहयाई से उठती लहरों का जूनून देखो ,

दिल में कितनी उम्मीदें जगा कर साहिल से मिलती हैं ।

haq ki ladai shayari,

वक़्त की फ़ितरत बदल गयी साहेब ,

इश्क़ के बाद इबादत ए ख़ुदा हम नहीं करते ।

 

उनके लफ़्ज़ों से ख़ुदा की नमाज़ें अदा होती हैं .

जो हर्फ़ दर हर्फ़ मोहब्बतों की मोतियाँ पिरोते हैं ।

 

भूरी चमकती आँखों में तज़ुर्बा है ,

ये एक उम्र का तक़ाज़ा है ।

 

बूढ़े दरख़्त की लुग्दी से अब अख़बार बनता है ,

जिसकी छाँव तले बुज़ुर्गियत की चौपाल सजती थी ।

 

रूख़्सती का वक़्त है प्यारे ,

यही इल्तेज़ा है गुंचा ए गुल की उछलो कूदो आबाद रहो  ।

 

क़हक़शाँ गूँजते थे जिन दरीचों में ,

फ़लक़ पर कारवाँ लेकर सुनहरी शाम बैठी है ।

 

इत्मीनान से सोया पड़ा है सन्नाटा फ्लाईओवर ब्रिज के नीचे,

कभी ये चौराहा शहर भर के बुज़ुर्गों की शान होता था ।

 

ख़्याल आया तो एक बुज़ुर्ग की नसीहत याद आई ,

सहेज लो दुआएं नसीब वालों को बुज़ुर्गों का लाड़ मिलता है ।

 

मैं इश्क़ करता हूँ ,

हर्फ़ दर हर्फ़ कागज़ ए बयानी क़लम सयानी करती है ।

 

मुट्ठी से फिसली रेत् सा दरिया में बहता जाता हूँ ,

मैं बिसरे वक़्त की तहरीर सा गुमनाम हुआ जाता हूँ ।

 

अब एक ही काम बचा है शहर के बेरोज़गारों में ,

ख़त मेहबूब के छुपा के अख़बारों में सुबह से शाम पढ़ते रहना

 

दो वक़्त की रोटी पाँच वक़्त की नमाज़ ,

क्या इतना कम है या मौला ।

 

चश्म ए चरागों में हो गर उम्मीद की लौ ,

जलते अंगारों में भी फूल खिला करते हैं ।

 

तुझ पर शबाब आया आकर चला भी गया ,

यहां खिज़ा के मौसम में बाग़ ए बहार की उम्मीद अभी बाकी है ।

 

सेहराओं से गुज़रते बादलों का कुछ तो फ़लसफ़ा होगा ,

यूँ ही बेमतलब शबनमी बूँदें जलती ज़मीन पर टपकती नहीं ।

bhutiya kahani,

उम्मीद रखें किससे, किससे गिला सिकवा करें ,

जब वक़्त ही खराब हो अपना ज़माने को कौन तोहमतें अदा करे ।

pix taken by google