न गलीचा न मसलन सर पर दिन रात की थकन shayari hq ,
न गलीचा न मसलन सर पर दिन रात की थकन ,
खलिहान के बीच कितना बेफ़िक़्र सो गया किशान ।
लाख दावतें उड़ा लाया ओहदे दारियों के बीच ,
कभी मजलूम के हिस्से का निवाला भी उसकी ज़बान में रख देता ।
कटीली झाड़ियों के पीछे दिलों में सरहदें बन गयीं ,
बहके गुलों के दम पर मज़हबी टोलियाँ बन गयीं ।
बन गए कुनबों पे कुनबे ,
चश्म ए तर फिर उन्ही अपनों के दम पर खून की नदियाँ बन गयीं ।
है अगर हैवानियत ही इब्न ए इंसान का जूनून ,
फिर उसी तेवर के दम पर रूबरू ए आदम अज़ाब की तस्वीरें बन गयीं I
इक क़फ़स का साया ही है गर वतन की ज़िन्दगी ,
ले मुझे आगोश में ले मौला दे दे सुकून की ज़िन्दगी ।
इसे मौसम की बदमिज़ाजी कहें या तक़दीर का हवाला दें ,
आग जलती है लू बरसती है दिल झर झर बरसता है ।
सलीके से पेश आता तो रात टिकती सेहर तक ,
उसकी पेशानी में तो बस जश्न ए ग़ुबार था ।
इंसान मिलते हैं क़िरदारों में फरिश्तों जैसे,
बस अपनों की भीड़ में कोई हमज़बान नहीं मिलता ।
ज़हन में छप गए क़िरदार वो दिखते नहीं दिखते ,
हैं ज़माने भर में बहुत दीदार ए यार वो दिखते नहीं दिखते ।
रिश्ते नातों की पेचीदगी उस पर उमदाह ख़याल ,
चंद लम्हे भी कहीं चैन ओ फुर्सत के झेले नहीं जाते ।
ज़िन्दगी चंद लम्हों का ताल्लुक़ात नहीं ,
ये रश्म ओ रिवाज़ तमाम उम्रें साथ जीने मरने के हैं ।
ख्वाब जलते हैं तपती यादों से ,
राख के ढेर में जज़्बों के कुछ सुलगते अंगार होने चाहिए ।
किसी दिन खूब चलता है किसी दिन कलम तक सरकती नहीं ,
इन बनावटी उसूलों से सब्ज़ शाखा ए गुल की तबीयत कभी मचलती नहीं ।
सवालों की पेचीदगी पर मत जा ,
जवाब ख़ुदा के पास भी नहीं क्यों मुफ़लिश का सब्ज़ बाग़ बेमौसम में उजड़ा है ।
तारीफ़ ए गुल में कसीदे न पढ़ो ,
सब्ज़ बागों में बहारें साथ होती है ।
उजड़े चमन के असरार देख कर ,
कभी खुद में भी झाँक लेता कितना वीरान है तू ।
उठती बयार आँख में डाले है किरकिरी ,
तेरा इश्क़ है या दौलत ए दीनार सरफिरी ।
pix taken by google
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