फ़क़त दो वक़्त की रोटी का सवाल है साहेब alfaaz shayari ,

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फ़क़त दो वक़्त की रोटी का सवाल है साहेब alfaaz shayari ,
फ़क़त दो वक़्त की रोटी का सवाल है साहेब alfaaz shayari ,

फ़क़त दो वक़्त की रोटी का सवाल है साहेब alfaaz shayari ,

फ़क़त दो वक़्त की रोटी का सवाल है साहेब ,

गरीब बच्चे दिवाली में और ख्वाहिश नहीं रखते I

 

मेहनत के दम पर होती ग़र मुकम्मिल हर ख्वाहिश ,

सोया पड़ा मुर्दा न बादशाहत झाड़ता ।

 

सियासी जब सल्तनतें लूटने में आमादा हो ,

अवाम क्यों कर के ख्वाहिशें रखें ।

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नज़ारे बहुत देखे हैं गुलिश्तां में बहारों वाले ,

खिज़ा के मौसम में कौन चश्म ए गुल की ख्वाहिश रखें ।

 

तपती ज़मीनो से आस्मां क्या करते ख्वाहिश ,

खुद कुढ़े तक़दीर पर अपनी खुद रोएं ।

 

अरमानों की देहलीज़ पर ख्वाहिशों की औक़ात बढ़ गयी,

देखा जो चाँद रात को दिल की चाहते मचल गयीं ।

 

यूँ तो आसमानों में उड़ना परिंदों की फितरत है,

ज़मीन पर कामिल बसेरा की ख्वाहिश वो भी रखते हैं ।

 

वो कल भी क़यामत थी वो अब भी क़यामत है,

उसकी क़यामत सी नज़र ग़ज़ब का कहर कर गयी ।

 

शब भर सफेहा पलटती आँखें,

सुबह हर पन्ना कोरा है ।

 

तेरी किस तस्वीर को सज़दा करता ग़ालिब,

तेरी हर बात उम्दाह है

 

चेहरा जो साफ़ होता हमाम के बाद,

लोग चेहरा न देखते हर शाम जाम के बाद ।

 

जो इबादत दरों की नक्काशियां देख कर करता है ,

कॉल का कितना भी पक्का हो सियासत ज़रूर करता है ।

 

इंसान बांटे क़ौमें बांटी नश्लें तबाह कर दी,

वरना मादर ए वतन कहाँ का कहाँ होता ।

 

फिरका परस्तों के शहर में जब कोई मज़हबी परस्तिश की बात करता है,

सच कहूं उस आदम के मुंह से सियासत की बदबू सी आती है ।

 

बेवजह ही घूरती नहीं सरहद पार की नज़रें ,

हो सकता है उसका अजीज़ ए दिल उस पार रखा हो ।

 

आसमानी परिंदों को सरहद पार उड़ने की आदत है ,

अड़ गए ज़िद में तो पिंजरे तोड़ डालेंगे ।

 

कोई तो होता जो खंडहरों की वल्दियत सम्हाले रखता ,

अब बस मुस्टंडों की फौजें हैं जो मौजें लूट खाएंगी ।

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धरा से गगन तक तर बतर गीला ,

सियासी डीमी की दीमक ताज़ ओ तख़्त चाट खायेगी ।

pix taken by google ,