मुशाफ़िर क्या जाने शहर ए मिजाज़ कैसा है Alfaaz shayari,
मुशाफ़िर क्या जाने शहर ए मिजाज़ कैसा है ,
चमकते रास्तों के पत्थर दिलों के अंदरूनी हालात बयान नहीं करते ।
क़ाफ़िलों में गुज़रता है मुसाफिरों का कारवाँ ,
रज प्यार के मिले तो माथे पर सजा लूँ ।
हमने तुझको खोया इस बात का है ग़म ,
एक तू है जो मुस्कुरा के भी आँसू बहा रहा है ।
धड़कते दिल पर तेरी यादों का बोझ रहता है ,
चाँदनी चाँद की होकर भी बादलों में छुपी हो जैसे ।
ये जो चाँद तारों पर चलती बात है महज़ बात नहीं ,
लहद मेहबूब किसी और का उससे भी हसीं होगा ।
हाथों में ज़ख़्मी दिल लिए फिरता रहा क़ाफ़िर ,
लोग फिर भी कहते रहे रात का मुशाफिर है कोई रास्ता भटक गया होगा ।
मिलती नहीं है थाह मुझे अपने आप में ,
फिर भी तू कह रहा है तेरे दिल में मेरे लिए जगह ही नहीं है ।
वो सोयें सेज़ पर तन कर ,
गोया सर्द रातों में हम तन्हा अकेले ठण्डी आहें भरते हैं ।
ज़ौक़ नहीं है शायरी कर लूँ ,
बस तक़ाज़ा ए इश्क़ कलम करता हूँ ।
हमको तो जितने भी मेहबूब मिले बेवफ़ा मिले ,
खुदा करे तुम्हारी मोहब्बत बड़ी लाजवाब हो ।
तेरी नज़रें हैं या नमक का दरिया ,
जो भी मुशाफिर डूबता है पूरा का पूरा नमक हलाल नज़र आता है ।
इतनी भी बेशब्री भी अच्छी नहीं जानिब ,
एक उम्र का फ़लसफा है घडी दो घडी तो ठहर लो ।
एक एक सुनहरे बाल की अपनी एक कहानी है ,
कुछ उम्र ए तक़ाज़ा है कुछ आँख दीवानी है ।
वो कहते हैं इश्क़ में तेरे हम बेवफ़ा मरे जाते हैं ,
अब कौन वादे वफ़ा को दफ़नाने की ज़हमत उठाये हम खुद ही दफा हुए जाते हैं ।
कहते हैं मैखाने में इबादत नहीं होती ,
कोई ऐसा बताओ जो पैमाना उठाते वक़्त मेहबूब ए इलाही को न याद किया हो ।
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