मैं मेरी तन्हायी और रात का वो सूनापन alone shayari ,
मैं मेरी तन्हायी और रात का वो सूनापन ,
फ्लैट पर से होकर गुज़रती गाड़ियों के हेड लाइट्स की रोशनी ।
रोशनी से परेशान परिंदों के परों का फड़फड़ाना ,
जिसकी आवाज़ से अक्सर मेरा आँख मीचते उठ जाना ।
पंखों की फड़फड़ाहट से कमरे में उठती धूल ,
हाल ए दिल बयान करती है ।
गर्द बस जिस्म तक नहीं ,
ज़हन तक घर कर गयी है ।
रात की तन्हाई में रंग ए महफ़िल जमती है ,
दिन के उजालों में भीड़ मुझे नागिन बनकर डसती है ।
रात का हर पलछिन मेरा अपना होता है ,
मेरी तन्हाईयों में अक्सर मेरे साथ हँसता रोता है ।
दिन में धूप है धूल है मिटटी है चिपचिपा पसीना है ,
रात शीतल है कोमल है सुनहरी यादों का नगीना है ।
काश की इस रात की कभी सुबह ही न हो ,
न खोना पड़े कारोबार ए जहान की रानाईयों में ,
बस रात की कालिख़ सा श्याम श्वेत सहज सरल सा जीवन हो ।
ये ज़मीन से फ्लैट की ओर ऊपर सीढ़ियां जो जाती हैं ,
क्यों नहीं सीधा आसमान से मिल जाती हैं ।
ताकता हूँ रोज़ फ्लैट की खिड़की से शब् माहताब को ,
कभी तो हो रूबरू जमाल ए यार हर मंज़र ख़ूबरू ओ शानदार हो ।
साल दर साल बीतते गए ,
हम चश्म निगाहों के फूल चुनते गए ।
ये सामने की सड़क टूटती उखड़ती बनती रही ,
और हम यादों का बवण्डर लिए उसी में चलते गए ।
इस भरे इमारतों के शहर में कोई अपना नहीं मिलता ,
ग़ैर मिलते हैं बहुत हमसाया नहीं मिलता ।
तभी दिन से ज़्यादा रातें हसीन लगने लगी ,
अपने वजूद को हमसाया भी समझने लगी ।
रात का कोई गिला शिकवा नहीं होता ,
रात खामोशियों में बात करती है ।
रात का कोई कहकशां नहीं होता ,
मैं अक्सर काट लेता हूँ तन्हा रातें जाग कर ।
कुछ तो मुब्तला होगा इसके मुतल्लिक़,
मेरा भी जहान भर का हिस्सा काटकर ।
ये वही देती है जो मैं चाहता हूँ ,
दिन के उजालों में लोगों की मनमर्ज़ियाँ मिल जाती है ।
मैं और मेरी तन्हाई होती है,
रात के दरमियाँ बारहां दूसरा कोई नहीं होता ।
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