रूबरू ए यार जिधर किधर की बातें love shayari,
रूबरू ए यार जिधर किधर की बातें ,
फिर चाँद तारों में फ़िक्र की रातें ।
ज़िन्दगी चार दीनारों की ग़ज़ल लगती है ,
कभी ग़ालिब की पहेली कभी मानूस की सहेली सी लगती है ।
दाग़ ए मुफ़लिश पे तरस आता है ,
मज़लूम बस मानूस सा नज़र आता है ।
ज़माने भर की संगदिली बरपा रहा है ,
सियासी सोहबत में मानूस नज़र आ रहा है ।
ख़ुद के खेमे में हर बात जायज़ थी ,
मेरे पाले में मानूस का साथ बेजा है ।
आतिश ए शहर में हम तन्हा खड़े जलते रहे ,
भीड़ से परे कोई मानूस बना रोता रहा ।
ज़मीनी ज़र्रे की औक़ात नहीं ,
चाँद तारों को मानूस करके,
हंसती आँखों ने पलकों में खार छुपा रखा है ।
जाने किस ग़म में मर गया होगा ,
क़फ़स पर क़ातिल ए मानूस का निशाँ सा दिखता है ।
बेंच रहा था सैय्याद सामान कैसे कैसे ,
कुछ क़त्ल ए इश्क़ कुछ क़त्ल ए जान जैसे कैसे कैसे ।
बस शहर ए सैय्याद की मेहरबानी समझो ,
इश्क़ का क़त्ल होता गया और शायरों की जमातें खड़ी होती गयी ।
न जानू काशी क़ाबा न कौनौ तीरथ धाम ,
एक क़फ़स के सब दीन ओ मज़हब क्या गीता क्या क़ुरआन ।
तू भी धो ले मैं भी निखर लेता हूँ ,
क़फ़स से रूह तलक दोनों ही पाकीज़ा हैं ।
क़फ़स से रूह तलक ज़ार ज़ार सही ,
तेरी यादें हैं कहीं मैं तन्हा होके तन्हा तो नहीं ।
छोड़ कर फ़िक़्र ए क़फ़स तन्हा उदास बैठा हूँ ,
मैं मेरे पास नहीं तेरे आस पास बैठा हूँ ।
क़फ़स का धोकर के दाग़ मैं कहाँ उजला हुआ ,
तेरा एक नाम मुझे ताउम्र दाग़दार रखेगा ।
क़फ़स से तर्क़ ओ ताल्लुक़ तेरा अच्छा ही रहा ,
रूह ए रंजिश जो रग में उतर जाती तो लहू की रफ़्तार घटाता कैसे ।
ज़िक़्र छेड़ देती हैं रातें तेरी ,
मैं जब भी क़फ़स से रूह तलक तन्हा उदास होता होता हूँ ।
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