सियासत है गर खून की प्यासी तो फिर ये प्यास बढ़ने दो romantic shayari ,
सियासत है गर खून की प्यासी तो फिर ये प्यास बढ़ने दो ,
क़फ़स से रूह तक जल जाए रेज़ा रेज़ा इंक़लाब करने दो ।
सियासत की तंग गलियों में मत आना आबिद ,
यहाँ खुदाओं के भी नाम बदल जाते हैं ।
क़फ़स में घुट घुट के मरने से अच्छा है ,
भूखे नंगे ही खुली सड़कों में आके इंक़लाब दोहराएँ ।
मुज़्तरिब है इब्न ए इंसान अपनी बहसत से गोया ,
जानवरों जैसा पेट की आग से इन्सान इतना मज़बूर नहीं है ।
आग उठने के लिए चिंगारी हो ज़रूरी तो नहीं ,
पत्थर दिलों को भी दर्द का एहसास होना चाहिए ।
तेज़ रफ़्तार ज़िन्दगी में बुज़ुर्गों के लिए वक़्त नहीं मिलता ,
जब खुद की उम्र हो जाती है तब सबको बुज़ुर्गियत याद आती है ।
चार छह दस की पंक्तियों से पता नहीं चलता ,
इश्क़ हर्फ़ दर हर्फ़ सफहों में बयान नहीं होता ।
तीर न तुनीर न खंज़र न तलवार ,
तेरे इश्क़ में ज़ालिम न जाने कितने आशिक़ बेज़ार पड़े हैं ।
यूँ साँसों का मुज़्तरिब होना ,
शब् ए महताब कोई बिछड़ा यार याद आ गया होगा ।
रातें मुज़्तरिब होती थी अंदाज़ ए गुफ्तगू में सारी,
अब मस्लहत ए दौर में बस हाल चाल होता है ।
ज़िन्दगी की अदायगी से पहले मुज़्तरिब तो न था ,
साँस थम गयी होगी थक के सो गया होगा ।
कमीज़ की मुड़ी आस्तीने इतनी मैली थी ,
उठी कॉलर से पता चलता है रुतबा अब तो ।
मुर्दा था तो अपने क़फ़स में सोया रहता ,
क्यों जँगलों से झाँक झाँक के ज़िंदा होने का एहसास किया करता है ।
ये मेरे दाग रहने दे तेरे सीने में ,
या मेरे क़फ़स की ही मुझको सुपुर्दगी कर दे ।
क़फ़न गिरे या बदन से कोई लुटता लिबास ,
ज़ौक़ ए शहर में है लुटती गलियों के तमाशा देखें ।
तू ग़र थक गया है सोजा,
मैं तेरे तकिये तले ख्वाब बनके न रह सो पाउँगा ।
दिल इश्क़ ए मुलाज़िमत के लिए मज़बूर सही ,
मगर बग़ावत में बंदिशें इसे मंज़ूर नहीं ।
जिन्हें लगता है की ये मर जाएँ ,
उनकी बददुआएँ भी हम पर दुआ का काम करती हैं ।
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