सियासियों ने रईसों की ऐय्याशियों के पुख्ता बंदोबस्त कर दिए funny political poem,
सियासियों ने रईसों की ऐय्याशियों के पुख्ता बंदोबस्त कर दिए ,
फिर लरज़ते कुछ सिसकते बचपने क्यों रह गए ।
फ़क़त दो वक़्त की रोटी में दबा है बचपन ,
जिनकी सिसकियों में महले दो महले खड़े होते गए ।
ऊँचे महलों से सिसकियाँ सुनायी नहीं देती ,
हुकुमरानों की दावतों में मज़लूमों का खून ए जाम होता है ।
मासूम हाँथों में तक़दीर की लकीरें नहीं होती ,
आँखों में ख्वाब नहीं चिमनियों के जाले सज़ते हैं ।
बचपन की वो यादें वो आँगन का पालना ,
वो माँ की आँखों के मोती का पालने में झूलना ।
वो पालने से झाँकते बच्चे का मुस्कुराना ,
वो उठना वो गिरना वो गिर गिर के सम्हल जाना ।
वो हँसना वो रोना वो रो रो के मान जाना ,
वो ज़िद ही ज़िद में चाँद तारों को मचल जाना ।
अब भी सोता हूँ मैं मगर वो बेफ़िक्री नहीं होती ,
अब भी रोता हूँ मैं सबसे छुपके छुपा के ।
अब भी जीता हूँ मैं मगर वो बचपन सी सादगी नहीं होती ,
कितना नटखट था वो बचपन का ज़माना ।
वो तितलियों में रंग भरना पंछियों संग उड़ जाना ,
ज़माने से थक हार के बचपन में खो जाता हूँ मैं ।
नींद से जागता हूँ जब ज़माने की भीड़ में खुद को पाता हूँ मैं ।
ज़िन्दगी खुद ग़मो का सौदा है फिर ,
दर्द भरी रग में जश्न ए महफ़िल दौड़ाऊँ कैसे ।
गज़ब ख़्याली है उसके पहलू में ,
जब थका धूप से सहारा माँ के आँचल में पाया ।
मोहब्बत के मानिंद कोई ख़ूबरू ए हवादिस न हुयी ,
न दर्द उठा न सोखी ए तद्फीन का पता ही चला ।
तयसुदा है जब रूहों का आना जाना ,
फिर क़फ़स के इर्द गिर्द दर्द सा रहता है क्या ।
कभी तो खुद लब पे ग़ज़ल बनके सँवर जाती है ,
तो कभी इज़हार ए मोहब्बत ज़बान पे आके लौट जाती है ।
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