सुर्ख आँखों में जला रखे थे ख्यालों के चराग dard shayari,
सुर्ख आँखों में जला रखे थे ख्यालों के चराग ,
मिन्नतों बाद सुकून आया है दीदा ए यार के बाद ।
तेरी सादा मिजाज़ी वो लहज़ा ए अदायगी ,
बस एक नूर ए नज़र रोशन जहान मेरा करती हैं ।
लुढ़कती रहती हैं तेरी यादें बिस्तर के कोने कोने में रात दिन ,
कब सिरहाने है कभी चादर तले पता भी नहीं चलता ।
हिज़ाब उनके लिए ही पुख़्ता हैं ,
हुक़ूमत ए सल्तनत में हालात जिनके खस्ता हैं ।
चंद कुनबों में सिमटी सत्ता ,
और फ़िक्र ए अवाम की ख़तरे में पड़ी आज़ादी ।
हर रात यही कह कर अलविदा करती है,
सुबह फिर एक नयी किरण से ज़िन्दगी का आगाज़ करेगी ।
सुर्ख उजालों में न शर्मिंदा हो ,
करम ऐसे रख मेरे मौला की मैं मर के भी ज़िंदा होऊँ ।
एक मोहब्बत ही बस पाकीज़ा है ,
बाकी हर सै ज़माने की यहाँ ज़ाया है ।
बढ़ती धड़कनो संग दूर निकल जाता है ,
फिर सेहर होने तक शहर भर में दिल नज़र नहीं आता ।
बेज़बानो को बेघर बार करके आदम ,
ख़ुद चंद साँसों का मोहताज़ रहता है ।
कभी देखी है किसी के वास्ते रूकती थमती ज़िन्दगी ,
ज़िन्दगी जश्न मनाते हुए कहीं दूर निकल जाती है ।
पत्थरों की मीनारों में दम घुटता है ,
घाँस फूस के झोपड़े सुराखों से साँस लेते हैं ।
खाली ज़ेबों की अमीरी देखो ,
जाने कैसे ग़म ए मुफ्लिशी में भी चेहरों पर मुस्कान लेके चलते हैं ।
गुलों के साथ खार बहुत जायज़ हैं ,
वरना कभी अर्क़ कभी बर्क़ बना लेते हैं लोग ।
खून को खून की फ़िक्र होती है ,
क्या आदम का आदमीयत से कोई वास्ता नहीं होता ।
मर रहे हैं मज़हबी ज़मीनों के वास्ते ,
आस्मां से रब सब की फ़िक्र करता है ।
फ़िक्र कैसी मलाल कैसा ,
सत्ता के ऐवज़ में चेहरों पर कालिख पुतना यहाँ आम बात है ।
मैं गिर रहा था तो तू बढ़ के थामता कांधा मेरा ,
मैं जीते जी जानता तुझको मेरी फ़िक्र कितनी है ।
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