ऊँची ऊँची इमारर्तों की जो कारीगरी है dard shayari ,
ऊँची ऊँची इमारर्तों की जो कारीगरी है,
बदन से टपके लहू के संग बहते पसीने की सब कारगुज़ारी है ।
कूचा कूचा गुल ए गुलज़ार चमन है हरसू ,
तपती दोपहर मज़दूर का टपकता पसीना और लहू ।
मेहनत मशकक्त ओ पसीना ,
कामचोरों का इन लफ़्ज़ों से सरोकार कहाँ ।
खून और बहते पसीने में फ़र्क़ इतना है ,
तफरी ए फसल ए गुल निगेहबानी ए सब्ज़ बागों पर नज़र जितना है ।
रौनक निख़र रही है बदन कुन्दन दमक रहा है ,
तपिश ए मेहनत ओ मशक़्क़त से पसीना जितना बह रहा है ।
दौलत ए हुश्न में लुट जाते हैं कारोबार कई ,
खून और बहता पसीना बेरोज़गार खड़ा मिलता है सरे बाजार कई ।
पिघल रहा है बदन से सैलाब पसीना बनकर ,
ज़मीन का ज़र्रा ज़र्रा चमकाएगा फ़सल ए नगीना बनकर ।
साख से टूटा पत्ता ख़ाक का ढेर हो गया ,
ठण्ड में आग तपी , गर्मी में किसी के छत का मुंडेर बन गया ।
उन घरोंदों की छतें मज़बूत होती हैं ,
जहां बुज़ुर्गियत के साये में बचपन गुज़रता है ।
कच्ची पगडण्डियों में दौड़ता बचपन ,
कभी डर के कभी थम के कोई साया तलाश करता है ।
अँधेरी रात के पलछिन में साथी बदलते गए ,
कभी तू नज़र आया कभी तेरा साया नज़र आया ।
हवाओं में सुर्खरू है अब तलक ज़िक़्र तेरा ,
जब ज़माना वफ़ा ए इश्क़ से तर्क़ ओ ताल्लुक़ नहीं रखता ।
मौज ए हवाओं को कब ख़बर किसकी ,
किसकी नादानियों से कौन बेघर बार हुआ ।
सितारे तक़दीर के गर्दिश में और ज़माना संगदिल ,
हवाओं ने वक़्त के साथ रुख़ बदलने में मोहलत न लिया ।
वो बैठा है सज संवर के किसी के इंतज़ार ए दस्तक में कहीं ,
हवा के झोकों की ख़ुश्बू बता के जाती है ।
हवा के झोकों में गुलों का चर्चा है ,
लाख मौज ए गुलबदन बर्क़ ए लिबास चले ।
pix taken by google ,