कच्ची उम्रों में रश्म ए उल्फ़त तो जायज़ है Alfaaz shayari,
कच्ची उम्रों में रश्म ए उल्फ़त तो जायज़ है ,
गोया कभी कभी उम्र ए दराज़ में भी हसीं हादसे हो ही जाते हैं ।
यक़बयक लब पर आके ठहरी ,
बात जो है वो राज़ ए दिल से भी गहरी है ।
ख़ुमारी ए इश्क़ उतरा तो समझ आया ,
बस हम तुम बर्बाद रहे बाकी सारा जहां आबाद रहा ।
तहरीर ए वक़्त की निगराकानी ,
उम्र ए दराज़ के साथ साथ क़लम भी हो गयी सयानी ।
उसकी निगराकारी में हो गए हादसे कितने ,
दम ख़म होने का दम भरता था जितने ।
बिन पिये दो जाम और चढ़ा ले ,
हादसों के शहर में टिंचर तू भी लगा ले ।
ऐ मेरी शोख़ हसीं नाज़ ए ज़बीन हुश्न ए गुलबदन ,
वक़्त के साथ तेरा जिस्म भी ढल जायेगा ।
तू कितना पाक़ीज़ा ए मोहब्बत का धनी है मैंने देख लिया ,
तू संगदिल है तो आमने सामने वार भी कर ।
सज़र से टूटते पत्तों की दास्ताँ ए बयानी है ,
हवा के रुख पर ज़र्द पत्ते भी खिलखिला के गीत गाएंगे ।
बर्बादी ए इश्क़ की महफ़िल सजाये बैठे हैं ,
रोशन रहे घर उसका हम अपना नशेमन जलाये बैठे हैं ।
साज़ जो छम से खनक जाए तो बात बन जाए ,
होके बेपर्दा ग़ज़ल सरे बज़्म निकल आये तो बात बन जाए ।
तुमने मोती तरास रखे हैं ,
मैं पलकों पर सीपी सजाये बैठा हूँ ।
जल रहा था शहर ए आतिश से ज़र्रा ज़र्रा ,
मैं क़फ़स को चिलमन न उढाता तो खुद भी जल जाता ।
अब मौत ही उढाये तो क़फ़न ओढूगा ,
तेरा इश्क़ ए लहू रगों में इस क़दर से ताज़ा है ।
सुर्ख सफक उजालों की दरकार कहाँ ,
तेरे ख़्वाबों के घुप अंधेरों में थोड़ा जीता हूँ थोड़ा मर लेता हूँ ।
हाल ए मुफ़लिश पर तरस आता है ,
आदम ही आदम का खूँ जाने क्यों बहाता है ।
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