रंजिश ही सही दिल से राब्ता रखना romantic shayari,
रंजिश ही सही दिल से राब्ता रखना,
रूहानी सिलसिले होते रहेंगे राहतों से वास्ता रखना ।
मौसम ए ज़र्द में हर हर्फ़ झुलस जाते हैं,
वरना हाल ए दिल बयानी में कैसी हया और शर्म ।
ज़माने की हर सै जहाँ पे मात खाती है ,
माँ के आँचल में आफ़त भी दूर भाग जाती है ।
हया ही था गर श्रृंगार तेरा ,
नवयौवन में बंज़र धरा कुण्ठित सी क्यों है ।
बड़ा ताज़्ज़ुब है रंग ओ बू ए हिना ,
बाद मुद्दतों के भी तेरी सेज़ की सिलवटों से हया सी झलकती है ।
है खून , खून का गुनहगार जहाँ में सारा ,
हया भी सादगी भी तिस्नगी भी ज़िन्दगी भी ।
मिजाज़ ए मौसम की तब्दीलियत का असर ,
अलफ़ाज़ ए कारोबारी में गुमराह नज़र आते हैं ।
दो जून की रोटी से लरज़ते नहीं कदम ,
मुफलिस ए दाना को और कैसी राहत चाहिए ।
तब जज़्बात और थे अब हालात और हैं ,
तब दौर ए राहतों में सुकून था अब मुफ़लिस ए कमज़ोर हैं ।
न खिले गुल इस बहार में भी.
खिज़ा के मौसम में भी गुंचा ए दिल में बहार है ।
ये जो इश्क़ के फ़लसफ़े हैं दिल ए गुस्ताख़ के कारनामे हैं ,
ताउम्र बेक़सूर इश्क़ बस खामियाज़ा भुगतता है ।
जानवरों में वेहसत दिखती नहीं है अब ,
शहर भर के लोग आदमखोर लगते हैं सब ।
कब तलक ख़ाक के पुतले को आदम कर कर के ,
बड़ी बेशर्मी से हर रोज़ शहेंशाह कहेगा ।
आ भी जा वादियों से छुप छुप के ,
फ़िज़ा सरगोशियों में गीत कोई गुनगुनाई है ।
ग़र आदम ए सूरत थी इतनी ही नापसंद ,
फिर क्यों कर इब्न ए इंसान से दिल लगाया था ।
कब तलक ख़ाक के पुतले को दफ़न कर कर के,
रूह ए राज़दारी से मुँह चुराओगे ।
अब अगर मिटटी ही कह दे मुझसे मेरा रंग जुदा है ,
ख़ाक ए वतन की पहचान बता के भी होगा क्या ।
वो चरागों का दामन थाम के कहीं दूर निकला था ,
अब भी अँधेरी गलियों में भटकता मिलता है शाम को ।
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